कर्ण  खंडकाव्य

lord krishna and arjun, geeta saar, gitasar, mahabharata, lord krishna  lessons | जब तक मन में इच्छाएं रहेंगी, तब तक हमें शांति नहीं मिल सकती -  Dainik Bhaskar

कर्ण खंडकाव्य श्री केदारनाथ मिश्र प्रभात का चरित्र प्रधान ऐतिहासिक खंडकाव्य है। 


प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण )


विवाह के पूर्व ही कुंती को सूर्य की आराधना के फलस्वरूप वरदान में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाती है।कुल मर्यादा भंग होने के भय तथा लोक लाज के डर से वह अपनी ममता का गला घोट देती है। और उस बालक को नदी में बहा देती है ममता और मातृत्व प्रेम से परिपूर्ण कुंती का मंगलानी और क्षोभ से भर जाता है निसंतान सूत्र दंपति ने जब उसे अबोध नवजात शिशु को देखा तो उनकी मानवता जाग उठी और वे उस चीज को अपने घर ले आए सूत परिवार में पालन-पोषण होने के कारण बालक को आजीवन सूत पुत्र कह लाने का अभिशाप मिल जाता है। सूत दंपत्ति को स्वप्न में भी उम्मीद नहीं थी कि सूर्य के तेज स्वरूप वाला यह बालक आगे चलकर महाभारत का प्रसिद्ध दानवीर कर्णवीर कर्ण के नाम से ख्यात अर्जित करेगा। 
बचपन में एक दिन बालक राज दरबार में पहुंच ज्यादा है उसकी वीरता का उपहास उसके सूत पुत्र होने के कारण वहां होता है। अर्जुन ने उसे विशेष रूप से अपमानित किया किंतु पांडवों से इस आदेश रखने वाले दुर्योधन ने उनसे बदला लेने की नीयत से ही कर्ण को प्रेम और सम्मान दिया। वह उसे आश्रय देता है और उसे अंगराज कर्ण बना देता है।
द्रौपदी के स्वयंवर में मत स्वेदन के लिए जैसे ही कारण खड़ा होता है द्रोपति उसे आगे बढ़ने से रोक देती हैं

 सूत पुत्र के साथ ना मेरा गठबंधन हो सकता। 
  क्षत्राणी का प्रेम ना अपने गौरव को खो सकता।।

नारी द्वारा अपमानित कर्ण भरी सभा के मध्य अपमान का घूंट पीकर रह जाता है उसकी आंखों से क्रोध के कारण चिंगारी निकलने लगती है वह सूर्य की ओर देखकर उसी समय मन ही मन उसका बदला लेने की प्रतिज्ञा करता है। 

 

द्वितीय सर्ग (द्युतिसभा में द्रौपती )

स्वयंबर में भी धनुषधारी अर्जुन ने लक्ष्य भेद कर द्रोपति का वर्णन किया।  द्रोपदी पांच पांडव की पत्नी बन कर आ जाती है। विदुर आदि के समझाने से धृतराष्ट्र पांडवों को आधा राज्य दे देता है। उसके यश वैभव और राज्य की सुव्यवस्था ने दुर्योधन के लिए आग में घी का काम किया जिससे उसे एशिया की अग्नि और धड़कने लगी पांडवों ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया।  जिसमें अंततः उन्हें सफलता प्राप्त हुई दुर्योधन जब युधिष्ठिर के महल में आया तो उसे जल का भ्रम हो गया अर्थात जहां धरती थी वहां उसे पानी तथा जहां पानी था वहां धरती का भ्रम हो गया जिसे देखकर द्रोपति व्यंग से कह देती है कि अंधे से अंधे ही होते हैं यह बात दुर्योधन के मन में आग की भांति धड़कने लगीवापस आकर उसने शकुनी मामा से मिलकर कपट द्रुत की योजना बनाई तथा उसने इसके लिए पांडवों को भी आमंत्रित किया। इस छल भरे जुए में युधिष्ठिर अपना सर्वस्व यहां तक कि द्रोपति तक को हार बैठे दुर्योधन की आज्ञा से दुशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर राज्यसभा में ले आया द्रोपति सभासदों में न्याय याचना करती है किंतु किसी में भी दुर्योधन के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं है अतः सभी मौन रहते हैं बदले का उपयुक्त अवसर देखें दुशासन को और ज्यादा उत्तेजित करता है जिससे भरी सभा में द्रोपदी को अपमानित होना पड़ता है बाद में कर्ण को इस अन्याय और कुकृत्य की कसक आजीवन सताती रहती है। 

तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच कुण्डल दान)


जुए में सब हार जाने पर पांडव वन वन भटकने लगे दुर्योधन अब चक्रवर्ती सम्राट बन गया था कर्ण प्रण किया कि जब तक में अर्जुन को मार नहीं दूंगा तब तक मैं मांस मदिरा का सेवन नहीं करूंगा याचक जो कुछ भी मुझसे मांगेगा मैं उसे सहर्ष दूंगा। 

वह था कि या करने पर यह कठिन महान। 
जब तक व्रत करूं तब तक अर्जुन के हरु ना प्राण।।

इस प्राण से जहां पांडवों में चिंता की लहर दौड़ गई वहीं दुर्योधन को प्रसन्नता हुई अर्जुन इंद्र के पुत्र थे। अतः इंद्र को अपने बेटे की चिंता होने लगी वह किसी भी तरह अर्जुन की रक्षा करना चाहते थे 
कर्ण के पास जन्मजात कवच और कुंडल थे जिसमें उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था अतः इंद्र ने उसी कवच कुंडल को कर्ण से प्राप्त करने की सोची। कर्ण के पिता सूर्य ने भी अपने बेटे कर्ण को इस बात से अवगत करा दिया कि इंद्र ब्राम्हण के वेश में कवच कुंडल लेने आएंगे अतः वह सावधान रहें किंतु कर्ण अपने दान से पीछे हटने वाला नहीं था उसने कहा कि चाहे मुझे कवच कुंडल ही देने पड़े पर मैं अपने प्राण से नहीं हटूंगा ब्राह्मण वेश में इंद्र कर्ण के पास आए।  उन्होंने कर्ण से कवच कुंडल मांगा कर्ण उन्हें पहचान लिया पर सहर्ष अपने प्राण पर डटे रहकर जन्म से प्राप्त कवच और कुंडल का दान इंद्र को दे दिया इंद्र कर्ण की दानवीरता से प्रसन्न होकर बोल उठे। 

कर्णधन्य तुम तुम्हारी दान सिलता भारी। 
धन्य हो गई तुम्हें प्राप्त कर अमर भूमिया प्यारी।।

चतुर्थ सर्ग (श्री कृष्ण और कर्ण )


पांडवों को जब न्याय नहीं मिला तो श्री कृष्ण उनके दूत बनकर कौरवों की सभा में गए किंतु दुर्योधन के ना मानने पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी लौट कर जाते समय श्री कृष्णा कर्ण को अपने साथ संघ के द्वारा ले जाते हैं और कर्ण को समझाते हैं कि तुम पांडवों के सबसे जेठ भाई हो चलो तुम्हें सम्राट बनवा ता हूं वे कर्ण को समझाते हुए कहते हैं कि वह दुर्योधन का साथ छोड़ दे और अपने भाइयों से आ मिले। 

चलो तुम्हें सम्राट बनाओ अखिल विश्व का पल में। 
जिससे यश विस्तार तुम्हारा हो पृथ्वी मंडल में।।

कर्णअपनी व्यवस्था प्रकट करते हुए श्री कृष्ण से कहते हैं कि कुंती ने मुझे उस समय अपना पुत्र क्यों नहीं माना जिस जिस दिन कृपाचार्य ने मेरा अपमान किया था स्नेहमयी माता ने चाहा होता तो मेरा इतना तिरस्कार नहीं होता अब तो अपमान खेड़ा तिरस्कार आज मेरे जीवन के अंग बन गए हैं मैं अब दुर्योधन की उपकार भार से दब चुका हूं अतः उसी की ओर से लड़ूँगा। मैं जानता हूं कि जिधर आप हो उधर ही विजय है अर्जुन की वीरता आप ही के बल से हैं अर्जुन से यह भी कहना कि अब कर्ण के पास कवच कुंडल नहीं है केवल आत्मबल और शौर्य है वह अंत में यह अनुरोध भी श्रीकृष्ण से करता है कि वह युधिष्ठिर से उसके कुंती पुत्र होने की बात ना बताएं वरना दोनों के कर्तव्य पालन में बाधा आएगी वह द्रोपदी को अपने द्वारा अपमानित किए जाने पर दुख प्रकट करते हुए कहते हैं। 

देख कृतज्ञता को जिसने ऐसा दुष्कर्म कराया। 
प्रायश्चित करूंगा केवल छोड़ नीचे यह काया।।

पंचम सर्ग (माँ -बेटा )


अब महाभारत युद्ध प्रारंभ होने में केवल पाँच  दिन का अल्प समय रह गया है पांडव चिंतित हैं कुंती अपने पुत्रों की चिंता देख करण करण के पास जाती है करण कुंती को देखकर कहता है-

सूत पुत्र राधे आपको करता देवी प्रणाम। 

कुंती उसे समझाती है कि वह युधिष्ठिर का बड़ा भाई है वह सूत पुत्र राधे ना होकर कुंती पुत्र थे है यह सुनकर करण क्रोध से उठा तुम मुझे कहते मत कहो मुझे सूत पुत्र राधे ही रहने दो अपने पांचों पुत्रों की मृत्यु देख कर तुम मुझे आज अपना पुत्र बता रही हो। उस दिन तुम्हारा पुत्र प्रेम कहां था जब भरी सभा में सूत पुत्र होने पर मेरा अपमान हुआ था उस दिन तुमने मुझे नर्क में गिरा दिया और आज पुत्र का खेल खेलने चली हो तुमने पुत्र के साथ छल किया क्या अब यह चाहती हो कि मैं भी अपने मित्र के साथ धोखा करूं यह कदापि ना होगा कुंती जब निराशा होने लगी तो करण ने कहा मैं जानता हूं तुम क्या कहना चाहती हो तुम यही कहना चाहती हो कि तुम्हारे पाँच पुत्र हैं वे पांचों बने रहें मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा मैं वचन देता हूं कि तुम्हारी यही इच्छा पूर्ण होगी मैं केवल अर्जुन को छोड़कर अन्य चारों को नहीं मारूंगा। मैं ने अर्जुन को मारने का प्रण किया है यदि अर्जुन मर गया तो मैं पांचवां पुत्र बन जाऊंगा। कुंती मनचाहा वरदान प्राप्त कर लौट गई किंतु कर्ण के मन में विचारों का तूफान उठने लगा। 

कुंती लौट गई पाकर नीचे मनचाहा वरदान। 
किंतु उमड़ता रहा करण के प्राणों में तूफान।।

षष्ठ सर्ग (कर्ण वध )


महाभारत का भयंकर युद्ध टाले नहीं टला और सबसे पहले भीष्म पितामह ने कर्ण को कपटी तथा अत्याचारी बताते हुए उसका सहयोग न लेने का फैसला किया। कर्णअपमानित होकर यह प्रण करता है कि मैं सूर्यपुत्र नहीं कह लाऊंगा यदि मैंने भीष्म के रहते शस्त्र उठा लिया। युद्ध के दसवे दिन भीष्मपितामह  सरसैया पर घायल पड़े हुए हैं वह कर्ण को बुलाते हैं तथा उसे समझाते हैं कि वह सूत पुत्र ना होकर कुंती का पुत्र है इसलिए उन्होंने उस पांडव सेना लड़ने दिया था। अब वह पांडवों की ओर चला जाए यही उसकी इच्छा है किंतु कर्ण अपने प्राण को नहीं त्याग सकता है।  वह कहता है 

दुख है मुझे पितामह बंदी हूं मैं प्रण का। 

भीष्म के युद्ध में घायल होने के कारण द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति बनते हैं किंतु पांचवे दिन वह भी मारे जाते हैं।  सोलहवे में दिनकर को सेनापति बनाया जाता है उसकी भयंकर बाढ़ वार्ता से पांडव विचलित होने लगते हैं लेकिन भीष्म पुत्र घटोत्कच मायापुर भयंकर युद्ध करता हुआ कौरवो पर कहर बरसाने लगता है। कौरव में खलबली मच जाती है और रक्षा के लिए कर्ण को पुकारने लगते हैं 
कर्ण जी समोद शब्द का प्रयोग केवल अर्जुन पर करना चाहते थे वह उसे घटो कक्ष पर करके उसका वध कर देते हैं।कर्ण जानते हैं कि यह सारा माया खेल श्री कृष्ण का ही है किंतु वह मजबूर थे वह सोचने लगते हैं अब विजय अर्जुन की ओर ही है थोड़ा सा दिन शेष रह गया है करण के रथ का पहिया धरती में धंस गया है उसे निकालने के लिए वह रथ से उतरते हैं किंतु तभी श्री कृष्ण अर्जुन को कर्ण पर प्रहार करने को कहते हैं श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि युद्ध क्षेत्र में धर्म अधर्म का विचार ना कर जैसे भी हो शत्रु को परास्त करना चाहिए अर्जुन यह सुनकर कर्ण पर बाण प्रहार कर देते हैं कर्ण को वीरगति प्राप्त हो जाती है। 

खींच रहे थे कर्ण चक्र अर्जुन ने बाण चलाया। 
विराट वीर वह वहीं रह गया वासुदेव की माया।।

सप्तम सर्ग (जलांजलि )


कर्ण पर ही कौरवों को विजय की आशा थी उसके मरते ही कौरवों का साहस टूट जाता है कर्ण की वीरगति पर दुर्योधन को महान दुख होता है और वह कौरवों का अंत निकट जानने लगता है कौरव एक-एक कर मारे जाने लग गए भीमसेन ने गदा युद्ध से दुर्योधन को मार डाला। युधिष्ठिर ने अपने कुल के भाइयों का नाम ले लेकर जल दान किया तभी कुंती के वात्सल्य में हृदय में ममता उमड़पडी और कर्ण को भी अपने जेस्ट भाई के रूप में जल दान की प्रार्थना युधिष्ठिर से की युधिष्ठिर के पूछे जाने पर वह कर्ण के जन्म तथा बहाए जाने की सारी बात कह देती है कल को अपना बड़ा भाई जान कर युधिष्ठिर का प्रति प्रेम में गला भर आया उन्होंने कर्ण को आदर के साथ जल दान किया उनके मुंह से बरबस निकल पड़ता है। 

ऐसा कीर्तिमान भाई पा होता कौना धन्य। 
किंतु आज इस पृथ्वी पर  हाथ भाग्य ना मुझसे अन्य।।